Thursday, October 23, 2008

अंतिम स्तम्भ

"दूर-दूर तक फैले उजाड़ आज की सच्चाई बयान कर रहे है. मेरे आस-पास् कंटीले झाड़ों का पूरा जंगल उग चुका है.पत्थर, चट्टानें मानो मेरे वातावरण के अस्थि-पंजर हों, विभिन्न प्रकार के पेड़-पौधे मानो मांसपेशियां हों और धूल जैसे रक्त. सच ये है की अब मेरे शरीर से ज्यादा ये सब जीवंत लगते हैं. जहां तक नज़र जाती है, सिर्फ इसी प्रकार का जीवन दिखता है. मैं तो ये भी नहीं जानता कि इसे सचमुच कोई जीवन कहूं या फिर एक मुर्दा शरीर, बिलकुल मेरे जैसा, जिसमे अस्थियाँ, मांसपेशियां और रक्त तो है, पर प्राण नहीं!

मुझे गिनती नहीं आती, और सच कहूं, अगर आती भी तो क्या होता? वर्ष पे वर्ष बीतते जाते हैं, इन्हें गिन पाना शायद काल के ही वश में है. युगों पहले, मेरे जन्म के समय से ही मुझे एक काम सौंपा गया था, आज भी मैं उसे किये जा रहा हूँ, जबकि मैं जानता हूँ कि अब न तो उस काम का कोई मतलब है और न ही उस काम के प्रारूप का. मैं उस काम के बहाने जीने की कोशिश कर रहा हूँ, वो इच्छा जो अब मर चुकी है!

समय कितना अजीब होता है. सब कहते हैं कि हर दिन नया होता है. हर दिन में कुछ आशाएं अपना बसेरा करती हैं, कितनी बचकानी सी बात लगती है ये! मुझसे पूछो, मैंने युगों पार किये हैं, सिर्फ दिन-दिन बिताकर. मैंने वही सुबह, दोपहर और रात देखी है. मुझे याद है कि एक समय मेरे आस-पास् मुंह अँधेरे से ही सफाई और चहलकदमी शुरू हो जाती थी. औरतें मेरे पास् रसोई का ढेर सारा सामन रख देती थीं. मर्द तलवारबाजी का खेल करते करते जब मेरे पास् से निकलते थे तो मेरा रोम-रोम वीर रस से भर उठता था. बच्चे जब मेरे पास् किलकारियां मारकर खेलते थे तो मैं चाहता था कि मैं भी अपनी जगह से उछल कर उनका साथ दूं. एक घर कैसा होता है, ये मुझसे बेहतर कौन जान सकता है?

आरम्भ से मैं मुखिया नहीं था. मेरे तीन भाई भी थे. सबसे बड़े हमारे भैया थे जो हम में से सबसे अधिक शक्तिशाली थे. उनकी ज़िम्मेदारी भी सबसे बढ़कर थी.वो पूरे घर का बोझ अपने विशाल कन्धों पर उठाये थे. हम सब उन्ही पर आश्रित थे और उन्होंने कभी हमें भीमकाय काम का अहसास नहीं होने दिया, किन्तु समय से अधिंक शक्तिशाली तो भगवान् राम और कृष्ण भी नहीं रहे. भैया भी प्रलय के काफी दिनों के बाद अशक्त हो गए और हम भाइयों को अनाथ कर गए. धीरे-धीरे एक-एक कर बाकी भाई भी साथ छोड़ गए और मुझपर एक ज़िम्मेदारी का चीथड़ा छोड़ गए. शक्तिशाली होना भी कितनी बड़ी विडम्बना है!

आज, जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूँ तो लगता है कि मैं कई जन्म जी चुका हूँ! एक समय अपने भैया को और फिर खुद को सर्वशक्तिमान मान ने वाला मैं, आज सिर्फ अपने अंत की प्रतीक्षा कर रहा हूँ. वो सारी औरतें, मर्द और बच्चे जो कभी मुझपर आश्रित थे, अब तक न जाने कितने जन्म ले चुके होंगे. आज मेरे इर्द-गिर्द सिर्फ वो छोटे-छोटे जानवर और पक्षी हैं, जिन्हें मेरे होने या न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता. मेरे धराशायी होते ही वे कोई और ठिकाना ढूँढ लेंगे. बारिश की सोंधी खुशबू, सर्दी की कंपकंपाहट और गर्मी की चिलचिलाती धूप अब कोई उमंग नहीं पैदा करती. अब वो सिर्फ मुझे मेरे अंत तक पहुँचने को प्रेरित करती है.

अब तो ये लगता है कि अब तक जो कुछ भी हुआ, वो एक स्वप्न था. मैं, जो सिर्फ एक मिटटी का ढेर था, अब फिर से ढेर बनने जा रहा हूँ. शायद यहीं से मेरा पुनर्निर्माण हो. शायद इसी अंत को नयी शुरुआत कहते हैं. जीवन के ऊपर कितने भाषण दे दिए जाएँ, मगर सच तो यह है कि इसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है, और वो भी खुद के ही द्बारा. अब मेरे पैर लड़खड़ा रहे हैं. कम समय बचा है. नहीं जानता कि मैं अपने साथ कितनी यादें लेकर जाऊँगा. ख़ुशी, दुःख, संघर्ष सब शायद यहीं छोड़कर जाना होगा. शायद आस-पास् पनप रहे नए जीवन को और अधिक स्थान चाहिए, और वो मेरा स्थान भी लेना चाहता है. जीवन की राह ही ऐसी है. शायद यही विधि का विधान है, और मैं अंत के लिए तैयार हूँ."

तभी एक जोर के धमाके के साथ, वो बचा-कुचा खँडहर भी धूल में मिल गया!

Sunday, January 13, 2008

स्वप्न


"मरासिम" में गुलज़ार साहब के एक संवाद पर आधारित...



रात मैंने स्वप्न में देखा,दूर कुछ साए हैं,
पास वे आये,तभी समझा,पड़ोसी आये हैं.
दौड़कर उनसे मिला जब कंठ,तो हम रो दिए,
मैल जितने भी ह्रदय में थे,वहीं सब धो दिए.
हर्ष से घर में बिठाया,हाल फिर सबने सुनाये,
प्रेमवश चूल्हा जलाकर रोटियों के दल पकाए.
वे पड़ोसी मित्र सब,यों ही चले ना आये थे,
वे सुहानी याद का गुड साथ अपने लाये थे.
साथ मिलकर हम सभी ने,प्रेम से भोजन किया,
इस तरह हमने मिलन पर दर्प का रोंदन किया.
पर तभी तमचुर* वचन से,नैन खुलकर रह गए,
और सपने में बनाए भवन सारे ढह गए.
किन्तु गुड की चिपचिपाहट साथ मेरे आ गयी,
और कल की आग,चूल्हे को पुनः गरमा गयी.
स्वप्न लगता है मुझे वो,याद है आता वही,
किन्तु शायद स्वप्न का अस्तित्व है होता नहीं.
सरहदों पर,कल,सुना है,गोलियाँ फिर से चलीं,
सरहदों पर "स्वप्न" की हैं होलियाँ फिर से जलीं,
सरहदों पर "स्वप्न" की हैं होलियाँ फिर से जलीं.......

*तमचुर=मुर्गा

Friday, November 9, 2007

हवा महल

हमारे एक बड़े ही प्रिय बड़े भाई साहब हैं. हम सब उन्हें "राजा भैया"बुलाते हैं.कुछ साल पहले राजा भैया ने एक ऐसा अदभुत अनुभव किया की क्या बताएं.आपने अगर हल्दीघाटी,पानीपत अथवा महाभारत के विषय में सुना है तो आप यह भी जानते ही होंगे कि आजकल ऐसी लड़ाइयां, जो केवल साम्राज्य के विस्तार हेतु हों, किताबों में ही लड़ी जाती हैं. अगर विश्वास न हो तो हमारे कलयुगी मसीहा अमरीका को ही ले लीजिये,पूरी दुनिया में किस देश को कितनी फसल उगानी है से लेकर किस हद तक तेल निकालना है,ये सब "बाबा" अमरीका ही तो बताता है.

अरे...अरे लीजिये, आपको समझाने के चक्कर में मैं थोडा भटक गया.हाँ तो हम राजा भैया पर थे. राजा भैया ने भी जीवन में कई लड़ाइयां लड़ी.भगवान् की कृपा से हर जगह से राणा सांगा ही बनके निकले(अब जीत-हार कोई बड़ी बात थोड़े ही होती है!).एक लड़ाई के विषय में सोचकर ही आज भी मेरे रोंगटे खडे हो जाते हैं,इस युद्ध का तो मैं चश्मदीद(मैं चश्मा लगाता हूँ यार) गवाह हूँ.

हुआ यूं की कई साल पहले की तर्ज़ पर....राजा भैया का एक बड़ा ही आलीशान मकान था....कोलकाता के बहू बाज़ार इलाके में.वो मकान नहीं महल था.यदि आपने भूल-भुलैया चलचित्र देखा है तो आप समझ ही गए होंगे की मैं किस प्रकार के महल की बात कर रहा हूँ.जैसे उस चलचित्र में, एक महल के तीसरे माले पे एक भूत रहता था, ठीक उसी प्रकार हमारे राजा भैया का महल भी कुछ "हटके" था.अंतर सिर्फ इतना था कि इस महल के तीसरे तो क्या,पहले माले पे जाने के नाम पर भी किसी भी भूत की सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती. उस महल में कबूतर और कौवे तक अपना घोसला नहीं बनाते थे. बच्चों के प्यारे "बैटमैन" आस-पास के मकानों से शीर्षासन करते हुए महल को ऐसे प्रणाम करते थे मानो रावण और बाणासुर सीता-स्वयंवर में शिव-धनुष को दूर से ही देखकर प्रणाम कर रहे हों. अगल-बगल के मकान अपने भाग्य को कोसा करते थे कि किस विलक्षण पडोसी से पाला पड़ा है,क्योंकि जब भी हवा का झोंका आता था,उस महल के सारे पडोसी चौकन्ने होकर आत्मरक्षा को तत्पर हो जाते थे,क्या पता कब उस महल का कोई दिव्यांश उनके गर्भ में प्रविष्ट हो जाए. वैसे उस महल में हरियाली बहुत थी. उस क्षेत्र को सोना या हीरे-मोती उगालने लिए देश की धरती की कोई आवश्यकता नहीं थी.....महल की दीवारें ही उसके लिए पर्याप्त थी. खासतौर से पीपल से उन दीवारों को बड़ा प्रेम था.जगह-जगह पीपल की जड़ें दीवार को "आ गले लग जा" पुकारती हुई ऐसे गले लगाती थी जैसे भीष्म पितामह को शर-शैया में सारे तीर चिपकाए रहते हैं.उस महल की विशेषता यही थी की उसकी उम्र बता पाना स्वयं काल के लिए भी असंभव था,अरे कही दिव्य विभूतियों की कोई उम्र पूछता है?बोलो भला,शिव-पार्वती विवाह में गणेश जी की पूजा हुई थी या नहीं?फिर तर्क क्या करना?उस महल में जाने और विचरण करने का सौभाग्य मुझ पापी को भी प्राप्त हुआ था.मैं तो शुक्र मनाता हूँ कि मैंने अपने काफ़ी पाप धो डाले,वरना पता नहीं कब चारों धाम कर पाता. उस महल की सीढियां चढ़ते समय मुझे पता चला की भूकंप के समय क्यों सभी लोग चीखते-चिल्लाते खुले मैदान की ओर भागते हैं.हर कदम पे लगता था कि जीवन की सारी मोह-माया मिथ्या है,भगवान् का नाम जप ले रे दुष्ट, तेरा अंत समय आया.हर कदम पर महल की एक-एक ईंट अपने स्थान से कूद-कूद कर दूसरे सगे संबंधियों को हमारे आगमन का शुभ समाचार देती थी. उस महल में चलते समय मैं भली भाँती समझ सकता था कि जब सीताजी के पैरो-तले ज़मीन हटी होगी(जब उन्होने धरती में प्रवेश किया होगा)तो उन्हें कैसा लगा होगा. वैसे उस पुरातन महल में सनातन लोग रहते थे(पुराने किरायेदारों को इस से अच्छे नाम से क्या आप पुकार सकते हैं?).सभी एक से बढ़कर एक महात्मा.कोई कुछ भी कर ले, उनकी तपस्या,जो वो महल में रहकर करते थे, नहीं टूटती थी.मूसलाधार बारिश,आंधी के थपेडे, ट्राम लाइन की भूकम्पी भाड़-भाड़ और स्वयं तपस्वियों व उनके चेलों तथा रिश्तेदारों का आवागमन,रम्भा,मेनका, उर्वशी आदि अप्सराओं की भांति महल को डिगाने की हर संभव चेष्टा करते रहते थे, मगर तपस्वी बाशिंदों के तेज ने कभी उसे डिगने न दिया. स्वयं राजा भैया भी उनके इस तेज से इतने प्रभावित हुए कि वे भी उसी महल में रहकर तपस्या करने लगे, मगर दृढ आत्मविश्वास की कमी व अप्सराओं की दखलंदाजी से वे कभी-कभी घबरा कर भाग खडे होते थे. फिर ईर्ष्या वश उन्होने प्रतिज्ञा की कि वे इन सतयुगी तपस्वियों को इस कलयुग में पनपने न देंगे और वे चल पड़े उस वीर मार्ग पर जो उन्हें विजय पथ की भांति लगता था.

शुरू में तो उन्होने तपस्वियों को कमतर आंक कर महल के नीचे जाकर अपने नौकर सुमेरु(जिसकी लम्बाई सवा चार फुट से ज्यादा नहीं थी)को जोर से आवाज़ लगायी. उन्होने सोचा की उनके मेघ के समान स्वर ज़रूर उस महल के गर्व को खंडित करते हुए उसे धरती पर ला पटकेंगे, मगर तपोबल में कमी होने के कारण वे असफल रहे.तब जाकर उन्हें समझ में आया कि अकेले अपने दम पे कुछ नहीं होने का.फिर उन्होने तपस्वियों को समझाना चाहा,मगर क्या कभी रावण ने भी विभीषण या माल्यवंत की बात सुनी थी?स्वयं रामचरितमानस में लिखा है:

सठ सन बिनय, कुटिल सन प्रीती,सहज कृपन सन सुन्दर नीती,
ममता रत सन ज्ञान कहानी,अति लोभी सन बिरति बखानी,
क्रोधहि सम,कामिहि हरि कथा,ऊसर बीज बए फल जथा,

जब रामायण फेल हुई तो वे महाभारत पे आये और उन्हें धराशायी करने हेतु तरह-तरह के शिखंदियों का प्रयोग किया, जैसे पुलिस, कोर्ट, कचेहरी, मगर क्या वे भी कभी तत्काल सहायता देते हैं?सिंधु घाटी की सभ्यता से लेकर आज तक के सारे हथकंडे अपनाने के बाद वे हार मानकर भगवान् की शरण में आये और तपस्या छोड़ कर भक्ति मार्ग पर चल पड़े.सुबह-शाम बस यही एक प्रार्थना, कि उन सतयुगिओं से पीछा छूटे. सारे तैंतीस करोड़ देवता उनकी प्रार्थना सुन-सुन कर पक गए.फिर अंततः कोर्ट से नोटिस आया,केस कि सुनवाई फलां तारीख को है,मानो आकाशवाणी हुई हो कि "घबराओ मत, कंस के अंत हेतु में स्वयं अवतार लूँगा".बस,राजा भैया को मानो प्राण मिल गए हों. सचमुच ये भगवान् की कृपा ही थी कि सबके लाख समझाने के बावजूद भी केस का फैसला ४ साल में ही मिल गया और उन तपस्वियों को नैमिशारान्य छोड़ कर हिमालय की गोद (अर्थात कोलकाता के इधर-उधर के तंग गली-कूचे) में शरण लेनी पड़ी.आज उस पवित्र स्थल पर अद्भुत दुकाने खुल गयी हैं जो भिन्न-भिन्न आकार,प्रकार के जान्घिये व बनियान बेचती हैं.यदि आपको भी अपना जीवन सार्थक करना है, जो यहाँ से खरीद दारी अवश्य करें. अरे भाई,"ये अन्दर की बात है".

Thursday, November 8, 2007

मेरा परिचय

वैसे अपने मुह मिया मिट्ठू बनना कोई बहादुरी का काम तो है नहीं फिर भी अपने विषय में कुछ लिखना आवश्यक है यहाँ, अन्यथा मुझे ही विद्वान् लोग "अन्यथा" ले लेंगे.अरे भाई तारीफ़ किसे नहीं पसंद?वैसे मुझे बच्चन साहब की ये पंक्तियाँ बहुत भली भांति व्यक्त कर देती हैं:

"मुझको न ले सके धन कुबेर, दिखला कर अपना ठाट- बाट,
मुझको न ले सके नृपति, मोल दे माल,खजाना राज-पाट,
अमरो ने अमृत दिखलाया, दिखलाया अपना अमर लोक,
ठुकराया मैंने दोनों को, रखकर अपना उन्नत ललाट.

बिक मगर गया में मोल बिना,जब आया मानव सरस ह्रदय,
मिटटी का तन मस्ती का मन, क्षण भर जीवन, मेरा परिचय".