Sunday, January 13, 2008

स्वप्न


"मरासिम" में गुलज़ार साहब के एक संवाद पर आधारित...



रात मैंने स्वप्न में देखा,दूर कुछ साए हैं,
पास वे आये,तभी समझा,पड़ोसी आये हैं.
दौड़कर उनसे मिला जब कंठ,तो हम रो दिए,
मैल जितने भी ह्रदय में थे,वहीं सब धो दिए.
हर्ष से घर में बिठाया,हाल फिर सबने सुनाये,
प्रेमवश चूल्हा जलाकर रोटियों के दल पकाए.
वे पड़ोसी मित्र सब,यों ही चले ना आये थे,
वे सुहानी याद का गुड साथ अपने लाये थे.
साथ मिलकर हम सभी ने,प्रेम से भोजन किया,
इस तरह हमने मिलन पर दर्प का रोंदन किया.
पर तभी तमचुर* वचन से,नैन खुलकर रह गए,
और सपने में बनाए भवन सारे ढह गए.
किन्तु गुड की चिपचिपाहट साथ मेरे आ गयी,
और कल की आग,चूल्हे को पुनः गरमा गयी.
स्वप्न लगता है मुझे वो,याद है आता वही,
किन्तु शायद स्वप्न का अस्तित्व है होता नहीं.
सरहदों पर,कल,सुना है,गोलियाँ फिर से चलीं,
सरहदों पर "स्वप्न" की हैं होलियाँ फिर से जलीं,
सरहदों पर "स्वप्न" की हैं होलियाँ फिर से जलीं.......

*तमचुर=मुर्गा

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